न्याय से वंचित? सिविल सेवाओं में PBOR पूर्व सैनिकों का PAY FIXATION संघर्ष

🎤 होस्ट (प्रश्न 1):
नमस्कार श्रोताओं! आज हम एक ऐसे मुद्दे पर बात करने जा रहे हैं जो हजारों पूर्व सैनिकों को प्रभावित करता है — सिविल सेवाओं में पुनर्नियुक्ति के समय वेतन निर्धारण में अनियमितता। सबसे पहले बताइए, ‘पे फिक्सेशन’ होता क्या है और ये पूर्व सैनिकों के लिए इतना अहम क्यों है?

🎧 गेस्ट (उत्तर 1):
धन्यवाद। पे फिक्सेशन का मतलब है कि रिटायरमेंट के बाद जब कोई पूर्व सैनिक किसी सरकारी नौकरी में दोबारा नियुक्त होता है, तो उसकी सैलरी किस आधार पर तय की जाएगी। पीबीओआर — यानी “पर्सनल बिलो ऑफिसर रैंक” — आमतौर पर 37–40 साल की उम्र में सेवानिवृत्त हो जाते हैं और उन्हें अपनी जीविका के लिए इस नौकरी पर निर्भर रहना पड़ता है। सरकार के कई आदेशों के अनुसार, उनका वेतन या तो आखिरी सेवा वेतन के आधार पर तय होना चाहिए या उन्हें रक्षा सेवा में बिताए वर्षों के हिसाब से अग्रिम वेतन वृद्धि मिलनी चाहिए।

🎤 होस्ट (प्रश्न 2):
तो फिर समस्या क्या है? रुकावट कहां आ रही है?

🎧 गेस्ट (उत्तर 2):
समस्या यह है कि 1986 में जो सरकारी नीति बनी — वो साफ तौर पर भेदभावपूर्ण है। कमीशन्ड अधिकारियों को तो दोबारा नियुक्ति के समय उनके आखिरी वेतन के आधार पर फिक्सेशन दिया जाता है, लेकिन पीबीओआर को ज़्यादातर मंत्रालयों में शुरुआती स्तर का वेतन दिया जाता है — जैसे कोई फ्रेशर हो। रेल मंत्रालय, डिफेंस अकाउंट्स, पोस्टल आदि में यही हो रहा है।

🎤 होस्ट (प्रश्न 3):
क्या सरकार के पास ऐसी व्यवस्था को समर्थन देने वाले आदेश भी हैं?

🎧 गेस्ट (उत्तर 3):
बिलकुल। मुख्य रूप से ये आदेश —

  • CCS (Fixation of Pay of Re-employed Pensioners) आदेश, 1986,
  • DOPT के आदेश दिनांक 31 जुलाई 1986, 11 नवम्बर 2008, 5 अप्रैल 2010 और 8 नवम्बर 2010

इनमें यह कहा गया है कि 55 साल से पहले रिटायर हुए PBOR की पूरी पेंशन को वेतन निर्धारण से अनदेखा किया जा सकता है। यानी उनका वेतन उसी स्तर पर फिक्स किया जा सकता है, जिस पर उन्होंने रक्षा सेवा छोड़ी थी।

🎤 होस्ट (प्रश्न 4):
क्या कोई विभाग इन आदेशों को सही तरीके से लागू भी कर रहा है?

🎧 गेस्ट (उत्तर 4):
हाँ, कुछ सकारात्मक उदाहरण हैं। जैसे बैंकिंग सेक्टर में — IBA सर्कुलर के आधार पर — और कुछ सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयाँ सही वेतन निर्धारण कर रही हैं। यहां PBOR को उसी स्तर का वेतन दिया जा रहा है, जैसा उन्होंने सेना में छोड़ा था।

🎤 होस्ट (प्रश्न 5):
तो फिर केंद्र सरकार के मंत्रालय इस नीति को लागू क्यों नहीं करते?

🎧 गेस्ट (उत्तर 5):
इसके कई कारण हैं — अज्ञानता, जानबूझ कर देरी और अफसरशाही भेदभाव। कई विभागों में तो संबंधित आदेशों की फाइलें तक नहीं होतीं। महीनों तक फाइल दबा दी जाती है, और बाद में गलत तर्क देकर खारिज कर दी जाती है। दूसरी ओर, कमीशन्ड ऑफिसर्स के वेतन निर्धारण बिना किसी रुकावट के हो जाते हैं। यह न केवल प्रशासनिक असफलता है बल्कि संवैधानिक अन्याय भी।

🎤 होस्ट (प्रश्न 6):
इसका मानवीय असर क्या होता है? पीबीओआर और उनके परिवार कैसे प्रभावित होते हैं?

🎧 गेस्ट (उत्तर 6):
यह बहुत दर्दनाक स्थिति है। एक PBOR जिसने 20 साल सेवा दी, उसे MTS या LDC की पोस्ट पर ₹17,000/- मासिक वेतन मिलता है। पेंशन जोड़ने के बाद कुल ₹27,000/-। वहीँ एक समान अनुभव वाला सिविलियन कर्मचारी ₹50,000/- से ज़्यादा कमा रहा है। ये आर्थिक विषमता पीड़ा, हताशा और अवसाद पैदा करती है।

🎤 होस्ट (प्रश्न 7):
क्या कोई हल है? क्या किया जा सकता है?

🎧 गेस्ट (उत्तर 7):
हाँ, बस एक संशोधन चाहिए — CCS आदेश 1986 के Para 4(b)(i) में। उसमें स्पष्ट रूप से लिखा जाए कि “जो PBOR 55 साल से पहले रिटायर हुए हैं, उनकी पूरी पेंशन को अनदेखा कर वेतन उसी स्तर पर फिक्स किया जाएगा, जो उन्होंने रिटायरमेंट के समय प्राप्त किया था।” इससे वर्षों पुराना अन्याय मिट सकता है।

🎤 होस्ट (प्रश्न 8):
क्या इस दिशा में प्रशासनिक कदम उठाए गए हैं?

🎧 गेस्ट (उत्तर 8):
हाँ, Ex-servicemen Associations लगातार DoPT से संपर्क कर रहे हैं। 2019 में जब AIREXSA (All India Reemployed Ex-servicemen Association) को मान्यता मिली, तब DoPT ने माना कि CCS आदेश 1986 पुराना हो चुका है और एक समान नीति लानी होगी — जिसमें सभी रैंकों को बराबरी से देखा जाए।

DoPT ने एक नया ड्राफ्ट तैयार किया — “CCS Fixation of Pay of Re-employed Pensioners 2019” — लेकिन ये फाइल Department of Expenditure (DoE) में वर्षों से अटकी है। DoE बार-बार अव्यवहारिक टिप्पणियाँ देकर इसे रोक रहा है, लेकिन कभी कमीशन्ड ऑफिसर्स की लाभकारी व्यवस्था पर आपत्ति नहीं करता।

🎤 होस्ट (प्रश्न 9):
फिलहाल इस प्रस्ताव की स्थिति क्या है? क्या फाइल DoE के पास है या DoPT में वापस आ गई है?

🎧 गेस्ट (उत्तर 9):
हाल ही में, जून में AIREXSA की एक उच्च स्तरीय बैठक हुई — जिसमें DoPT के सचिव, DoE के एडिशनल सेक्रेटरी भी शामिल हुए। वर्षों की कोशिशों के बाद DoE ने आखिरकार फाइल लौटा दी — लेकिन उसमें कोई ठोस आपत्ति नहीं, सिर्फ बेकार की टिप्पणियाँ थीं। अब DoPT ने फिर से इस फाइल को संशोधित कर भेजने की तैयारी कर ली है और उम्मीद है कि इस वर्ष के अंत तक समाधान निकल आएगा।

🎤 होस्ट (प्रश्न 10 – अंतिम विचार):
आप श्रोताओं को क्या संदेश देना चाहेंगे?

🎧 गेस्ट (उत्तर 10):
ये सिर्फ पैसे का मामला नहीं है — यह सम्मान, न्याय और गरिमा की लड़ाई है। हमारे सैनिक अपनी जान जोखिम में डालते हैं, परिवार से दूर रहते हैं, हर आदेश का पालन करते हैं — तो क्या वो इतना भी हक़ नहीं रखते कि उन्हें उनका बनता वेतन दिया जाए?

अगर आप ये सुन रहे हैं — इस मुद्दे को शेयर करें, आवाज़ उठाएं, और इस लड़ाई को आगे बढ़ाएं। यह सिर्फ PBOR की नहीं — बल्कि पूरे सिस्टम की नैतिकता की परीक्षा है।

🎤 होस्ट (समापन):
आपका बहुत-बहुत धन्यवाद।
आइए हम अपने सैनिकों का सम्मान सिर्फ भाषणों में नहीं, बल्कि ऐसी नीतियों से करें जो उनके बलिदान की सच्ची कीमत चुकाए।
जय हिंद!

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