27 साल की लड़ाई के बाद मिला न्याय
भारतीय सेना के एक पूर्व जवान को आखिरकार 27 वर्षों के लंबे संघर्ष के बाद सुप्रीम कोर्ट से न्याय मिला है। यह कहानी सिर्फ एक सैनिक की नहीं, बल्कि हजारों उन सैनिकों की भी है जो अपने हक के लिए वर्षों तक सिस्टम से लड़ते हैं। यह केस भारतीय न्याय व्यवस्था, प्रशासनिक उदासीनता और सैनिकों की अदम्य इच्छाशक्ति का जीवंत प्रमाण है।
✊ एक सैनिक का संघर्ष
यह मामला एक ऐसे सैनिक से जुड़ा है जिसने 1988 में भारतीय सेना की आर्मी मेडिकल कोर (AMC) में सिपाही के रूप में अपनी सेवा शुरू की। लेकिन 9 वर्षों की सेवा के बाद, उसे सीजोफ्रेनिया (मानसिक बीमारी) के आधार पर सेवा से हटा दिया गया। दुर्भाग्यवश, उसे डिसेबिलिटी पेंशन नहीं दी गई।
कारण यह बताया गया कि उसका मामला “नाना” (Neither Attributable Nor Aggravated by Military Service) श्रेणी में आता है, जिसका अर्थ है कि यह बीमारी सैन्य सेवा से संबंधित नहीं मानी गई।
🛑 पेंशन से लगातार इनकार
- इलाहाबाद रिकार्ड ऑफिस से आवेदन अस्वीकार
- MOD (Ministry of Defence) से भी कोई राहत नहीं
- कोच्चि AF Tribunal से भी याचिका खारिज
- सभी प्रयासों के बाद भी किसी स्तर पर उसे कोई न्याय नहीं मिला
⚖️ अंततः पहुंचा सुप्रीम कोर्ट
जब हर दरवाज़ा बंद हो गया, तब यह पूर्व सैनिक सुप्रीम कोर्ट पहुंचा। वहाँ उसने केसर सिंह, सुरेंद्र सिंह राठौर, और ए.बी. दामोदरन जैसे पूर्व मामलों का हवाला देकर अपनी याचिका प्रस्तुत की। अदालत ने पूरे मामले को गंभीरता से लिया और एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया।
🔍 सुप्रीम कोर्ट की महत्वपूर्ण टिप्पणियाँ
- फिर से मेडिकल बोर्ड भेजना अनुचित:
कोर्ट ने कहा कि 27 साल बाद फिर से मेडिकल बोर्ड भेजना न्यायसंगत नहीं होगा। यह अनावश्यक विलंब और अन्याय होगा। - कानून की व्याख्या में “उदार दृष्टिकोण” जरूरी:
सामाजिक सुरक्षा से जुड़े मामलों में ऐसे कानूनों की व्याख्या की जानी चाहिए जो कर्मचारी के हित में हो। - सकारात्मक अर्थ को प्राथमिकता:
यदि किसी शब्द के दो अर्थ हों – एक कर्मचारी के खिलाफ और एक उसके पक्ष में, तो अदालत ने सकारात्मक और लाभकारी अर्थ अपनाने की वकालत की।
✅ अंतिम निर्णय
- पूर्व सैनिक को डिसेबिलिटी पेंशन प्रदान करने का आदेश
- पिछले 3 वर्षों का एरियर भी भुगतान करने का निर्देश
- फैसला 31 पृष्ठों में विस्तृत है, लेकिन इसका सार यही है:
“सैनिक के साथ न्याय होना चाहिए, न कि अन्याय।”
🚨 सवाल उठाता यह निर्णय
- क्या हमारे सिस्टम को यह सोचने की ज़रूरत नहीं है कि जब एक सैनिक को अपने हक के लिए सुप्रीम कोर्ट तक जाना पड़े, तो यह हमारे तंत्र की असफलता नहीं है?
- जिनके पास संसाधन नहीं हैं, वो कहाँ जाएँ?
- क्यों ऐसे केस कोर्ट तक घसीटे जाते हैं जब उनका समाधान विभागीय स्तर पर संभव है?
📢 निष्कर्ष
यह निर्णय केवल एक सैनिक के हक की बहाली नहीं है, यह सभी सैनिकों के आत्मसम्मान की पुनर्स्थापना है। यह हमें याद दिलाता है कि सेवा के बाद भी एक सैनिक को सम्मान और न्याय मिलना चाहिए।
“देश की सेवा करने वाले को, न्याय के लिए दर-दर भटकना न पड़े – यही सच्ची राष्ट्रसेवा होगी।”
जय हिंद! जय भारत!
सैनिक तथा पूरब सैनिकों के वेलफेयर समाचार के लिए हमारी WhatsApp चैनल फॉलो करें। ESM इन्फो क्लब आपके सेबा में सदा सतर्क है।